जिंदगी में- रकमिश सुल्तानपुरी

थक गयी हैं
आज सड़कें
आदमी का भार ढोकर

जिंदगी में
आ गया है
दर्द का संयोग कैसा
दूर रखता
आदमी को
आदमी से, रोग कैसा?
सुप्त नगरों
में जगी हैं
चुप्पियों की नस्ल सारी
ख़ौफ़ पीछे
पड़ गया है
जिंदगी के हाथ धोकर

वक़्त सुस्ताने
लगा है
लोग ठहरे हैं सफ़र में
जीतने को
जिंदगी सब
हो गए है क़ैद घर में
कौन किसको
कर रहा है
संक्रमित
किसको पता? क्यों?
मौत से
करते शिक़ायत
जिंदगी में ज़हर बोकर

सुस्त
चैराहे पड़े
पगडंडियों से ठान अनबन
देखकर के
आपदा ये
आज चिंतित क्लांत है मन
हे मनुज! सुन
खोज तेरे
नाश का कारण बनी है
सीख ले
अब तो सम्हल जा
लग रही है सख़्त ठोकर

-रकमिश सुल्तानपुरी