प्रेम के आख़र-सुरजीत तरुणा

प्रेम ने कहा,
क्या मैं अपनी उँगलियों से
तुम्हारा नाज़ुक चेहरा छू सकता हूँ?

मैंने अपनी आँखें बंद कर ली
उसने धीरे-धीरे मेरे चेहरे को छुआ
मैं पिघलकर चाँदनी बन गई

एक शीतल निर्मल चाँदनी
और मैंने मदहोश नज़रों से देखा
ज़िन्दगी ख़ूबसूरत है
और उसकी रौशनी में भीगा यह संसार
प्रेम के आगमन पर
सरगम की धुन पर नृत्य कर रहा है
सितारों की चुनर ओढ़े रात
नई दुल्हन सी शरमा रही है

और प्रेम ने पी लिया है
मेरे दर्दो-ग़म
मेरी कड़वाहट को

आह! इक छपाक की आवाज़
मेरी तन्द्रा टूटी
देखा किसी ने शांत झील में कंकड़ फैंका था

चाँद और चाँदनी का चेहरा
उठती लहरों के साथ मिटता चला गया

बेरूख़ी और तल्ख़ियों के कंकड़
सारे अक़्स धूमिल कर देते है
गलतफहमियों की हवायें बहा ले जाती हैं उन्हें

प्रेम के आख़र…
पानी की सतहों पर ही क्यों लिखे जाते है अक्सर

रचनाकार- सुरजीत तरुणा