पुस्तक समीक्षा: वरिष्ठ साहित्यकार रामदरश मिश्र- जमीन से जुड़े रचनाकार

डॉ. आशा सिंह सिकरवार
अहमदाबाद, गुजरात

हिंदी के मूर्धन्य वरिष्ठ कवि, साहित्यकार रामदरश मिश्र जी सही अर्थ में सीधे सरल सम्मानित कवि हैं वे कविता लिखते ही नहीं, जीते भी हैं। उनका रचना संसार बहुत विस्तृत है। गीत, ग़ज़ल, कविता, कहानी, उपन्यास, यात्रा-वृत्तांत, डायरी, आत्मकथा, आलोचना आदि विधाओं में उनकी कलम ने अपनी एक खास जगह बनाई है।

वरिष्ठ साहित्यकार रामदरश मिश्र जी की चयनित कविताएं जिनका प्रकाशन वाणी प्रकाशन से ‘पचास कविताएं नयी सदी के लिए चयन’ नाम से हुआ है। इसमें सभी काव्य संग्रह से श्रेष्ठ कविताओं का चयन किया गया है। उनके कविता-संग्रहों बैरंग-बेनाम चिट्ठियां, धूप, कंधे पर सूरज, दिन एक दिन बन गया है, पक गयी है धूप, जुलूस कहां जा रहा है, आग कुछ नहीं बोलती, बारिश में भीगते बच्चे, ऐसे में जब कभी, आम के पत्ते। रामदरश मिश्र जी का यह शताब्दी वर्ष है। यह उनके जीवन की अनमोल उपलब्धि है। सरस्वती सम्मान के बाद उन्हें कबीर सम्मान से सम्मानित किया गया है। उनकी आत्म कथा ‘सहचर एक समय’ पर पद्मश्री पुरस्कार की घोषणा की गई है।

रामदरश मिश्र के रचना कर्म पर अब बात करना अर्थात उनके बहुआयामी व्यक्तित्व को याद करना है। रामदरश मिश्र जी का गहरा संबंध गुजरात से रहा है। उनका आरम्भिक काल गुजरात, अहमदाबाद में बीता। जब वे गुजरात में थे तब मेरा जन्म भी नहीं हुआ था। जब गुजरात विश्वविद्यालय में अध्ययन के लिए गई तब गुरुजनों से उनके साहित्यिक जीवन का पता चला। पीएचडी के छात्रों का वायवा लेने गुजरात विश्वविद्यालय में आया करते थे, तो कभी संगोष्ठी में शामिल होने। उनका दिल्ली से अहमदाबाद आना जाना बना रहा। संगोष्ठियों में हम विधार्थियों के साथ बैठे रहते थे।

चूंकि मैं भी अहमदाबाद, गुजरात से हूं इसलिए उन्हें नजदीक से जानने का अवसर मिला। उनके दो काव्य संग्रह “आग कुछ नहीं बोलती” और “बारिश में भीगते बच्चे” पर एमए में लघु शोध पर कार्य करने का अवसर मिला। जिसके निदेशक वरिष्ठ साहित्यकार प्रोफेसर रघुवीर चौधरी थे। उनकी कविताओं पर ठोस कार्य करने के बाद जीवन भर एक पाठक की तरह उनके साहित्य का अध्ययन करती रही। धीरे-धीरे मेरी कविताएं वे पढ़ते और जांचते रहे। गुरू, पिता जैसा आत्मिक रिश्ता बना एक पाठक का किताबों ने साहित्यकार के साथ इतना गहरा रिश्ता बना दिया, यही साहित्य का वास्तविक अर्थ है।

इस संकलन की पहली ही कविता ‘बैरंग बेनाम चिट्ठियां’ आज के कंप्यूटर और मोबाइल के युग में संवेदनशीलता को चुनौती देती है। जब चिट्ठियों का दौर था गांव से शहर और शहर से गांव चिट्ठियां मनुष्य के बीच सुख दुःख के आदान-प्रदान का काम करती थी। एक कागज का टुकड़ा किसी के भीतर दर्द कम देता था। पर कोई ऐसी चिट्ठी जिस पर नाम पता न हो, कैसे पहुंचे? पर यहां डाकिये की भूमिका संवेदनशील मनुष्य है दर दर भटक रहा है- कोई नहीं है वारिस इस चिट्ठी का/कौन जाने/किसका दर्द/किसके नाम/इस बन्द लिफाफे में/पत्ते की तरह कांप रहा है?

आज तकनीकी युग में न चिट्ठी है न संवेदना। मोबाइल फोन पर संवेदना का आदान-प्रदान नहीं हो रहा बस सूचना मिल रही है। एक बटन दबाते ही तुरंत मैसेज डिलीट हो जाते हैं। दर्द अनकहा रह जाता है, आपस में बात करने की बेचैनी खत्म होती जा रही है। मनुष्य का मनुष्य के साथ जो आत्मिक रिश्ता था वह धीरे-धीरे जरूरत में तब्दील हो गया है। मिश्र जी ने बहुत गहरे से प्रकृति को जिया है- फिर हवा बहने लगी, कहने लगीं वनराइयां कांपने फिर फिर लगीं, ठहरी हुई परछाइयां। एक मौसम का विदा लेना और दूसरे के आगमन का आभास केवल मौसम का जाना नहीं होता बल्कि यादों में अकेला कर देना भी है। पेड़ों की तरह इंसानों को भी समूह में रहना चाहिए।साथ साथ सुख दुःख जीने चाहिए। अकेले अकेले नहीं। कविता में अकेलेपन की पीड़ा बहुत मार्मिक रूप लेती है। बेहद संवेदनात्मक अभिव्यक्ति ‘विदाभास ‘गीत में मिलती है। आज हम प्रकृति से ही नहीं मनुष्य के रूप में भी खंख हुए हैं। वे जब भी पेड़ के, फूल के, पत्ते के पतझड़ के, वसंत के निकट गये वहां प्रकृति और मनुष्य की तुलना संवेदना को नये आयाम देती है, प्रकृति के पास जाकर मनुष्य की खोज करते हैं यही प्रकृति प्रेम उन्हें नयी कविता से जोड़ता है।

इसी क्रम में वे निशान ,एक नीम-मंजरी, बाहर तो वसंत आ गया है आदि कविताएं। बारिश का बिंब’ नदी बहती है ‘कविता में- हमेशा आकाश से झरती है एक नदी/और हमेशा ऊपर ही ऊपर कोई पी लेता है/धरती प्यासी की प्यासी रहती है और कहने को आकाश से नदी बहती है। धरती का प्यासा होना जल की कमी क्यों रहती है इतनी बारिश के बाद भी ये सवाल झकझोरता है?

आज दैनिक पत्र मात्र एक साथ एक सी घटनाएं बता रहे हैं, जिसे पढ़ने का आदमी आदी हो चुका है पर एक मध्य वर्गीय परिवार में व्यक्ति किन परिस्थितियों का सामना कर रहा है? ये खबर कहीं नहीं छप रही है। ऐसी ही कविता ‘बाहर-भीतर’ में मिश्र जी एक परिवार का चित्र खींचते हैं- जहां से रात को/चुपचाप एक तूफान गुजरा होता है- “दीवार पर टंगे शीशे को तोड़ता हुआ/तस्वीर के रंगों को फर्श पर बिखेरता हुआ/किताब के पन्ने फाड़ता हुआ/बच्चों के खिलौनों को कुचलता हुआ, रात पति पत्नी के बीच लड़ाई में बच्चे के खिलौने का कुचलना मासूम बच्चे की संवेदना पर प्रहार है। बाहर हादसे हैं परन्तु आदमी के भीतर जो घट रहा है उससे बेखबर है व्यवस्था। रामदरश मिश्र जी की कविता आम आदमी के भीतर झांकती है एक संवेदनशील मनुष्य की तरह जुड़ती है।

अंधेरे से प्रकाश की तलाश कवि मन को बेचैन कर देता है। कन्धे पर सूरज कविता में कवि ने संघर्ष भरे दिनों का जिक्र किया है। अनवरत दूसरे के लिए मार्ग बनाते रहना या जो इस व्यवस्था में संघर्षशील हैं। उनके साथ खड़े रहना जीवन को प्रकाश की ओर ले जाना है, मिश्र कहते हैं “मुझे तो ये सूरज सोने नहीं देता/सोता हूं तो सोते में उठाता है अंधकार में खोई राहों की खोज में भटकाता है “सूरज तो रोज निकलता है पर अंधकार जाता क्यों नहीं?

कवि अंधकार देख पा रहा है। समाज अंधेरे के गर्त में पड़ा है कहीं कोई बदलाव नहीं, कहीं से कोई सुबह नहीं। ये कविता महत्वपूर्ण तब हो जाती है कि सूरज को कांधे पर महसूस कर रहा था वह तो उसके भीतर उगा है। भीतर के प्रकाश से ही संसार के अंधेरे को दूर किया जा सकता है।

रामदरश मिश्र के संपूर्ण लेखन ग्रामीण संवेदना से ओत-प्रोत है। वे स्वयं स्वीकार करते हैं- “नयी कविता से जब मैं जुड़ा तब मार्क्सवादी दृष्टि अपना चुका था। अपने गांव तथा समाज से प्राप्त मेरे अनुभव को ठोस विचार- दृष्टि प्राप्त हो गयी थी किन्तु मेरी कविता किसी भी वाद के झंडे के नीचे नहीं आयी। वह समय के साथ चलती हुई नये अनुभवों, मूल्यों, प्रश्नों एवं शिल्पगत मुहावरों से सहज ही जुड़ती गयी। बुनियादी जमीन से जुड़ी रह कर उसने अपने को परिवर्तन की नवता के प्रति खुला रखा।”

लोक मंगल की अनुभूति ही उन्हें अपने देश की मिट्टी से आत्मा का रिश्ता बनाती है। उन्हें विदेश यात्रा से देश लौटा लाता है। अपने देश के प्रति गहरा जुड़ाव कविता ‘लौट आया हूं मेरे देश’ में कहते हैं- आखिर कहां जाता?/मैं गमले का फूल तो नहीं/कि एक सुरक्षित कमरे से दूसरे कमरे में रख दिया जाऊं/मैं तो एक पेड़ हूं एक खास जमीन में उगा हुआ/आंधियां आती हैं/लूएं चलती हैं/ओके गिरते हैं/पेड़ हहराता है, कांपता है/डालियां और फल-फूल टूटते हैं/लेकिन वह हर बार अपने में लौट आता हूं।

यह संपूर्ण कविता संवेदना के स्तर पर पाठक के अन्तस को झकझोरती है।आज युवा वर्ग पढ़ लिख कर विदेश में बसना चाहता है। एक साहित्यिक लेखक वर्ग भी देश छोड़कर विदेश में बस गया है। रामदरश मिश्र जी को भी विदेश में बसने का अवसर मिला पर अपने देश की मिट्टी, अपने देश का अपनापन उन्हें वापस ले आता है। संपूर्ण कविता में पेड़, नदियां, जंगल,तलाब,खेत पगडंडी आदि दृश्य बिंबों का अद्भुत सौंदर्य फैला हुआ है। जहां कहीं भी पेड़ के साथ सृष्टि रचते हैं तब ध्वनि बिंब जीवंत हो उठते हैं । पेड़, बजते हैं, झूमते हैं , पत्तों की ध्वनि में करताल का आभास एकदम से जंगल के दृश्यों को प्राकृतिक सौन्दर्य से भर देते हैं।

साथ ही हम शहर में मशीनरी जीवन जीने के लिए अभिशप्त हैं। इसलिए मनुष्य का वसन्त खोता जा रहा है। एक संवेदनशील ह्रदय विदेश से ही घर नहीं लौटता है बल्कि कवि अपनी मनुष्यता की जमीन पर भी पुनः वापिस करता है।
और जब जब मैं अपने से प्रश्न करता हूं/ तब तब लौट आता हूं तुम्हारे पास मेरे देश / आज फिर लौट आया हूं।

आज तक हिंदी साहित्य में मां पर एक से एक बढ़कर कविता लिखी गईं, बेटों ने मां की महिमा का मंडन किया। एक बड़ी संख्या उन लोगों की भी है जो अपनी मां को गांव में अकेला छोड़ आए थे शहर में कविताएं लिखते रहे मां के नाम पर वाह वाही बटोरते रहे।

रामदरश मिश्र जी की ‘मां ‘कविता उस अर्थ में कुछ अलग है ज्यादा अर्थपूर्ण है- ये दर्द-भरी अंगुलियां/ ये सुबह-भरी आंखें/जहां कहीं भी हैं/मेरी मां है।/मां,जब तक तुम हो/मैं मरूंगा नहीं।’ ये है रामदरश मिश्र जी जिन्होंने अपनी मां की दर्द भरी उंगलियों को महसूस किया और संपूर्ण स्त्री की उंगलियां भी काम करते हुए दर्द से भर आती होगी। जब श्रमशील स्त्री धरती पर है मृत्यु आना सम्भव नहीं। स्त्री ने पुरुष को मां के रूप में बहुत ईमानदारी से ममत्व दिया है, प्रेम किया है।

मिश्र जी एक महत्वपूर्ण कविता है- औरत। मिश्र जी कभी भी स्त्री पर बात करते हुए सीमित फलक पर नहीं रहते। उनके यहां हर रिश्ता आत्मिक है पर समाज की इकाई की ढला हुआ। मां, पत्नी जैसे आत्मिक रिश्तों पर बात करते हुए वे स्त्री को बड़ा फलक देते हैं। अपनी पत्नी की दिनचर्या को कविता के केंद्र में रखा है। एक स्त्री पर पूरा घर निर्भर होता है सबके लिए वक्त वे वक्त खटती रहती है बदले में कुछ नहीं मांगती या उसके समर्पण के बदले उसे कुछ नहीं मिलता। कवि ने बेहद संवेदनात्मक ढंग से स्त्री की उपस्थिति दर्ज की है- बच्चे खिलते-महकते रहे /नये-नये क्षितिजों की ओर/उनके चरण बढ़ते रहे/और तुम चरखे की तरह घर के भीतर चलती रही/पति और बच्चों की खुशी में ढलती रही/अनाम जीती रही/
जो खुद को अंधेरे में रखकर/जिंदगी भर/रोशनी की मूर्ति गढ़ती रही है।

साहित्य में पुरुष का श्रम तो दर्ज हुआ, किन्तु घरेलू स्त्रियों का श्रम अनदेखा रह गया। सच तो यह है कि स्त्री केवल श्रम नहीं दे रही प्रेम और वात्सल्य, अपनत्व की वेदी पर उसकी तमाम संभावनाएं बलि चढ़ रही है। इतनी बड़ी बात मिश्र जी ने औरत कविता में सहजता से स्वीकार की।

मिश्र की कविता में बच्चों के प्रति गहरी संवेदना मिलती है। मेरा मानना है कि कोई भी संवेदनशील कवि बच्चों को अपनी कविता के केंद्र में पहले रखेगा क्यों कि इस व्यवस्था में निश्छल बच्चे घायल हो रहे हैं, उनके मन को जो चोट लग रही है वह बेहद दर्दनाक है। एक ऐसी ही कविता है हाथ। मिश्र ने कवि कर्म को छोटा माना है और एक आम आदमी जो कहीं भी बच्चों को बचा रहा है वह बड़ा है।वे कहते हैं- मैंने एक जलते हुए मकान में से/एक बच्चे को बचाया था/फिर अस्पताल में पड़ा रहा।

बच्चे को बचाने के लिए अपनी जान पर खेल जाना यही मनुष्य का वास्तविक धर्म और कर्म है। स्वयं कर्म से वंचित रह जाने पर अपराध बोध से भर आना इतना ही नहीं अपने लेखन से बड़ा वह आम व्यक्ति है जो कर्म कर रहा है। उनके व्यक्तित्व की इसी ऊंचाई के कारण आज वे साहित्य जगत में अपना विशेष स्थान रखते हैं।

‘बारिश में भीगते बच्चे’ कवि बच्चों को बारिश में भीगते देख भावविभोर हो जाता है- मैंने उधर इशारा किया /जिधर बच्चे/बारिश में भीगते हुए /उससे खेल रहे थे/और उन पर गिरती बूंद बूंद उनमें नयी चमक भर दे रही थी। बारिश और मनुष्य का गहरा रिश्ता है जिस तरह बच्चे बारिश की बूंद गिरते ही उल्लास से भर आते हैं ठीक ऐसे ही मनुष्य को बारिश को जीने की नसीहत देते हैं।

संपूर्ण कविताओं में रामदरश मिश्र जी का जीवन के प्रति सकारात्मक दृष्टिकोण साफ झलकता है वे जीने का अवसर तलाशते हैं और मौका मिलने पर वे प्राकृतिक सौन्दर्य को जीते भी है। उनके यहां वसन्त आता है और चला जाता है इसके पीछे मनुष्य की बढ़ती महत्वाकांक्षा के चलते वह प्रकृति को नष्ट कर रहा है वे ठोस कारण भी देते हैं। इसी क्रम में एक नीम मंजरी, लौट आया हूं मेरे देश, वसन्त बाहर तो वसंत आ गया। नदी बहती है आदि कविताएं हैं। सांप्रदायिकता हमेशा संवेदनशील विषय रहा है। बहुत कविताएं लिखी गईं, मिश्र जी एक छोटी सी कविता के द्वारा एक मन को उद्वेलित करने वाली रचना को जगह देते हैं

समाज की दुर्दशा देखकर कवि ह्रदय परेशान हो उठा है जहां मिलजुल कर रहते थे अब वहां दीवारों ने इंसान का भौगोलिक दायरा तय कर दिया। धर्म ने मानवीय संवेदना को बहुत क्षति पहुंचाई है। मिश्र जी की कविता देखिए किस प्रकार समसामयिक बन पड़ी है- यह किसका घर है-

“यह किसका घर है?”
“हिन्दू का।”
“यह किसका घर है?”
“मुसलमान का।”
“यह किसका घर है? ”
“ईसाई का।”
शाम होने को आयी
सवेरे से ही भटक रहा हूं
मकानों के इस हसीन जंगल में
कहां गया वह घर
जिसमें एक आदमी रहता था?
अब रात होने को है
मैं कहां जाऊंगा?

रामदरश मिश्र जी की कविताओं में सरलता का शिल्प पाठक को अपनी ओर आकर्षित करता है। जो कुछ लिखा उसे रहस्य होने से बचा लिया यही विशेषता उनके साहित्य को ऊंचाई प्रदान करती है। अपनी भाषा के सन्दर्भ में लिखते हैं- “मैंने गीत लिखे, ग़ज़लें लिखीं, मुक्तक लिखे और नयी कविता तो लिखी ही। मेरी भाषा और शैली के भी कई रंग हैं। मैंने चाहे जो लिखा हो और जिस शिल्प में लिखा हो प्रयत्न यही रहा कि वह पाठकों के लिए सम्प्रेषण का संकट न पैदा करे। मेरा मानना है कि बड़ी से बड़ी बात भी सादगी से कहीं जा सकती है।”

इसी संकलन में मिश्र जी की ग़ज़ल ‘बनाया है मैंने घर धीरे-धीरे’ भी संकलित है-

“जहां आप पहुंचे छलांगें लगा कर
वहां मैं भी पहुंचा मगर धीरे-धीरे”

‘धीरे-धीरे’ की रचनात्मक यात्रा पूरे सौ वर्ष की यात्रा बनी।

रामदरश मिश्र की कविताएं जितनी बार पढ़ी जाएं उतनी बार अर्थ से भर देती हैं। और एक सम्भावना पीछे छोड़ जाती है। अब भी बहुत कुछ बचा है उनकी कविताओं पर चिंतन मनन करने के लिए। हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाएं। वाणी प्रकाशन, दिल्ली।