दंगा और लोकतंत्र- दीपक क्रांति

आज क्यों
इंसान ही इंसान को मार रहा है
एक इंसान दूसरे इंसान की
दहशत में दिन गुज़ार रहा है
सियासत के सामने इंसानियत क्यों हो रही नगण्य
धधकती धरा धुआं-धुआं है
कैसे कहें है धन्य

कोई अपना घर बचाने को दूजे का घर उजाड़ रहा है
कोई ‘हम शेर-हम ही शेर’ कह के
जानवर सा दहाड़ रहा है
‘हम ही श्रेष्ठ हैं’ हमेशा से यही
हर किसी को क्यों अहंकार रहा है
‘बचाओ-बचाओ’ आर्तनाद कर
बच्चा-बच्चा पुकार रहा है
गणतंत्र है या कि ‘गन-तंत्र’
‘सब एक हैं’ कहाँ गया ये मंत्र
विरोध-समर्थन के दो पाटों के बीच
क्यों पिसता जा रहा लोकतंत्र?

धार्मिक उन्मादों की मार से
क्यों आम इंसान हार रहा है?
इंसानियत बचाने के लिये क्यों नहीं
कोई आंदोलन चला रहा है?
दंगा का ताज़ ओढ़ कर लोकतांत्रिक कुर्सी को
ढोंगी बुद्धिजीवियों के दीवार-पीछे
आखिर कौन छुपा रहा है?
दंगा और लोकतंत्र का सच
जनता को सच-सच कौन दिखा रहा है?

-दीपक क्रांति
चंदवा, लातेहार, झारखण्ड
संपर्क- 7004369186