निकल पड़े थे अपने घर को- अमरेन्द्र कुमार

एक हुजूम निकलकर खड़ा हुआ था सड़कों पर,
गौर से देखा तो वह लाचार मजदूरों की टोली थी,
निकल पड़े थे अपने घर को,
भूख प्यास को ताक पे रख के,
यम को खुली चुनौती देकर,
आशाओं की गठरी लेकर,
उस समय जब मृत्यु से डरकर लोग दुबक के घर में बैठे थे,
चारो ओर सन्नाटा था, विश्व में मातम छाया था।
यह देखकर यम ने पूछा ,
क्या इनको मेरा भय नहीं?
इतने में ही हर एक पथ, हर कंकड़ जिनको छू कर वे निकले थे,
कहने लगे उनके जीवन की करुण कथा,
प्रभु! यह जो बेसहारों की बस्ती है, इनकी नहीं कोई हस्ती है,
इन्हीं से चलती है दूसरों की रोजी रोटी,
पर इनको रोटी भगवान भरोसे मिलती है,
इन्हीं के चलते सभी ठाठ-बाट से रहते है,
पर इनका कोई ठिकाना नहीं,दूर सुदूर गांव है इनका,
वहां इनको कोई काम नहीं, जाते है परदेश कमाने ,
अपने घर की यादें लेकर, दिल में अनेक अरमानों को लेकर,
प्रकृति के प्रकोप से जब सभी दुबक के बैठे है,
निकल पड़े है ये खुली सड़क पर अपने घर को जाने
हे प्रभु! इनको कोई कष्ट ना देना,
इनका जीवन तुम हर ना लेना,
इनका कोई दोष नहीं है,
इनको तो स्वयं अपना भी होश नहीं है,
जीवन दान तुम इनको देना, ये तो प्रकृति के साथी है,
गर्मी, ठंडा, धूप, वर्षा में नित्य करते है अपने कर्म को,
प्रकृति से इनका कोई लेखा जोखा नहीं है,
इस प्रलय में इनका कोई हाथ नहीं है
हे पथ! निःसंदेह इनकी कथा बहुत करुण है,
पर इसमें मेरा कोई दोष नहीं है, भू लोक पर मेरा कोई वश नहीं है
मृत्यु के बाद कर्मो को आधार मानकर, सबको फल देना मेरा कर्तव्य मात्र है,
हे पथ! फिर भी आगे देखो ब्रम्हा ने इनका क्या भाग्य लिखा है,
उनका लिखा असत्य ना होगा, मुझे लगता है इनका अभी अंत ना होगा

-अमरेन्द्र कुमार
आरा, बिहार
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