समीक्षा-डॉ. आशा सिंह सिकरवार
अहमदाबाद, गुजरात
पंकज त्रिवेदी का काव्य संग्रह “तुम मेरे अज़ीज़ हो” मिला। मेरे मंतव्य में ऐसी कविताएं जिसे एक सांस में पढ़ा और समझा जा सके। भाषा की सरलता, सहजता के कारण कविताएं ह्रदयगंम हुई हैं। संग्रह का प्रथम संस्करण 2024 में प्रकाशित हुआ। इसमें कुल छोटी-बड़ी 145 कविताएं हैं। यह विश्व गाथा प्रकाशन, सुरेन्द्र नगर, गुजरात द्वारा प्रकाशित हुई है। जिसका मूल्य 200 रुपये है।
‘विश्व गाथा’ पत्रिका के संपादक पंकज त्रिवेदी किसी पहचान के मोहताज नहीं हैं। हिंदी साहित्य में उनका आगमन गुजराती साहित्य से हुआ। आज विश्व गाथा पत्रिका देश विदेश में जानी मानी पहचान बना चुकी है। यह उनके मेहनत का ही परिणाम है।
पंकज त्रिवेदी स्वभाव से सरल एवं मुदूभाषी व्यक्तित्व के धनी हैं। जितना मैंने उन्हें जाना है वे एक मनुष्य के रूप में सच्चे व्यक्ति हैं। मनुष्यता अधिक है किसी की भी सहायता करने के लिए वे सदैव तत्पर रहते हैं।
हिंदी साहित्य में प्रेम को ऊंचाई तक ले जाने वाले कबीर दास ज्ञान मार्गी शाखा के एक संत व समाज सुधारक थे। कबीर दास ने प्रेम को ज्ञान के मार्ग की पहली सीढ़ी बताई ऐसे प्रेम की बात की जो मनुष्य के लिए ज्ञान के मार्ग खोले और यह ज्ञान भी कैसा? जो मनुष्य को समाज को समर्पित कर दें, इसी अर्थ में कबीर दास एक समाज सुधारक संत थे। ज्ञान के बिना मनुष्य को संसार का ज्ञान नहीं हो सकता है और उस ज्ञान को वे अन्तश्चेतना से जोड़ कर देखते हैं-
पोथी पढ़ि-पढ़ि जग मुआ, पंडित भया न कोय।
ढाई आखर प्रेम का पढ़े सो पंडित होय।।
यह कहकर कबीर ने प्रेम में अक्षर ढाई आखर शब्द को ब्रह्म रूप में प्राप्त करने की बात कही है। पूर्ण समर्पण की बात की है। प्रेम का मार्ग ही भक्ति का मार्ग हो सकता है, प्रेम का मार्ग ही मनुष्यता का मार्ग है जिस ह्रदय में प्रेम है वहां छल, झूठ,कपट के लिए कोई स्थान नहीं है। पुस्तकों से ज्ञान तो अर्जित किया जा सकता है, पर प्रेम की अनुभूति नहीं, वह तो प्रेम करके ही प्राप्त हो सकती है। प्रेम अनुभव का विषय है। प्रेम मनुष्य को दिव्यता से भर देता है।
एक बात स्पष्ट करना जरूरी समझती हूं कि आज न मध्य युग है न वे परिस्थितियां। अपनी सीमाओं के कारण छायावाद काल सीमित रहा। इसलिए आज के संदर्भ में हम ‘तुम मुझे अज़ीज़ हो काव्य संग्रह को देखेंगे- पहली ही कविता “जब कहीं” में पंकज जी आलिंगन का महत्व और व्यक्ति के मन पर होने वाली सहज अनुभूति अभिव्यक्त करते हैं- कोई भी/सुने नहीं,बोले न/गले लगाये/तब खामोशी/गले लगा लेती है/चुप रहकर भी/बहुत बेबाक हो गया हूं मैं (पृ.1)
स्त्री-पुरुष के बीच हो या पति-पत्नी के बीच आलिंगन ऐसी क्रिया है बहुत सारी उलझनें सुलझ जाती हैं। आज हर व्यक्ति समस्याओं से घिरा है। पारिवारिक समस्या से घिरा व्यक्ति प्रेम से कोशों दूर है। गले लगा कर कोई ये कहे सब ठीक हो जाएगा, फ़िक्र मत करो। यदि ऐसा पति-पत्नी का संबंध है, तो यही जीवन की पूंजी है। “लौट आओ तुम” कविता में प्रिय से मिल कर बिछड़ जाने की स्मृति बारिश के दिनों को विशेष बना देती है। “तुम्हारी याद में” कविता में कवि अपनी प्रेमिका को याद करते हुए भावों का आवेग में बह जाता है- “आंखें बरसती है आज/तुम्हारी याद/ऐसा भी नहीं कि तुम मुझे/कभी याद नहीं आती/छूट जाने का गम /आज मुझ पर हावी है और/इसी डर से मैं पल पल/असमंजस में सहमा सा/अचानक खो जाता हूं।” (पृ.10)
जब कवि अपनी प्रेमिका को याद करता है तो पाता है वह उसके वगैर अकेला हो गया है और इतना ही नहीं कभी कभी याद गहरे समंदर में डूबो देती है।बार बार कभी विश्वास दिलाता है कि मैं सचमुच बहुत याद करता हूं। कवि ह्रदय निरन्तर प्रेम की परिक्रमा करता रहता है। प्रेम की पराकाष्ठा है कि- असल में मेरा शरीर यहां/मन तुम्हारे पास (पृ.10)
भाव विह्वल होकर कवि याद में डूबा रहता है। यहां प्रेम की याद ही नहीं है बल्कि बीते हुए लम्हों की सुनहरी यादें भी है। जब एक दूजे के हाथ थाम कर कुछ दूर साथ चले थे। तुम्हारा इन्तज़ार, तुम्हारी याद है, मेरी खामोशी आदि कविताएं विरह वेदना से सराबोर हैं। जहां कहीं भी प्रकृति चित्र आये हैं पंकज जी वर्णनात्मक से बच गए हैं। अपनी अनुभूति में वे संकल्पबद्ध एवं दृढ़तापूर्वक खड़े रहते हैं, प्राकृतिक बहाब नहीं है यह सजगता कविता को ठोस धरातल देती है।
प्रेम पर साहित्य में इतना कुछ लिखा गया है कि प्रेम का अनुवाद ही आज दिखाई दे रहा है पर वास्तविक अनुभूति से मनुष्य बहुत दूर है। प्रेम के लिए प्रतिकार जरूरी है, सामाजिक अवेहलना झेलने की तैयारी रखनी पड़ती है। आज डिजिटल युग में प्रेम एक फरेब की दुनिया तैयार कर चुका है। जहां हर क्षण व्यक्ति के साथ धोखा हो रहा है। डिजिटल युग ने प्रेम में विकल्प दे दिए हैं। संवेदनशीलता पर चोट की है। वास्तविकता में प्रेम का कोई विकल्प नहीं है, इसलिए वह वियोगावस्था से भरा है। दर्द की अवस्था ही प्रेम की अवस्था है। अब दर्द से दो दो हाथ करेगा कौन।
कबीर के ‘ढाई आखर’ के बाद कोई प्रेम को इतनी ऊंचाई नहीं दे पाया है। आज मनुष्य के पास प्रेम को जीने का समय नहीं है, यही आज के समय की क्रूरता मनुष्य झेल रहा है।
सोशल साइट्स पर आप देखेंगे कि प्रेम कविताएं बह रही हैं। हर व्यक्ति प्रेम कविताएं लिख रहा है। कविता के भीतर स्त्री प्रेम लिखने के बाद, अगले ही क्षण स्त्री के ऊपर उंगली चींध रहा है, अर्थात वो कवि की भूमिका में फिट नहीं बैठता वह एक ईर्ष्या एवं कुंठित व्यक्ति के रूप में अवसर वादी व्यक्ति है। उसके भीतर न मनुष्यता है न प्रेम।
‘प्रेम शाश्वत है” कविता पंकज जी प्रेम का विराट रूप प्रस्तुत करते हैं जो कि संवेदना का विस्तार है- आओ, रिश्तों के/आत्मिक सम्बंध के/अहसासों के ताने-बाने से/जीवन की ऐसी चदरियां/ बुने मिलकर हम (पृ.14)
पंकज जी ने प्रेम को स्वतंत्र कर दिया है कोई आकार नहीं, कोई रंग नहीं, प्रेम को परखा नहीं जा सकता है क्योंकि वह व्यक्ति नहीं मूल्य है। व्यक्ति की अच्छी सोच और मन की श्रद्धा का विषय है।
प्रेम का सीधा संबंध मानवीय मूल्यों से है। कवि की संवेदना की ऊंचाई उसे अन्य कविताओं से अलग करती है। ‘ख्वाहिशें’ कविता प्रेम की अभिव्यक्ति में स्वीकृति की कविता है। हिन्दी साहित्य में ऐसा बहुत कम हुआ है कि प्रेम को स्वीकार करने का साहस किसी कवि ने किया हो, उन्हें छोड़ कर जिन्होंने ने प्रेम विवाह किया। पंकज जी लिखते हैं- मिले/जुदा हो गए/फिर मिले/ बालों में चांदी/चेहरे पे झुर्रियां/अपने-अपने/परिवार /बच्चों की बातें (पृष्ठ 21)
किसी भी व्यक्ति के लिए एक सुखद अहसास होता है जब उम्र के किसी मुकाम पर अपने बिछड़े हुए प्रेमी या प्रेमिका से फिर से मिल पाए बशर्ते दोनों परिस्थितियों वश अलग हुए हों, धोखा न दिया हो, तब दोनों के भीतर एक सुखद याद बनकर प्रेम बस जाता है। मिलन की उम्मीद बनी रहती है। भारतीय समाज में ऐसा संयोग कम होता है। प्रेम अब भी संघर्षशील है। विवाहेत्तर संबंधों के लिए कोई स्थान नहीं है। पंकज जी परिपक्व दृष्टि के साथ कविता के साथ न्याय करते दिखते हैं। ‘देखो न’ कविता में पंकज प्रकृति से नित नये दिन के साथ फिर फिर जीने की चाह रखते हैं- पेड़ों के पत्ते तो झड़ गए थे/मगर हरसिंगार पर अभी भी/बची थी/कुछ नई कोपलें और पत्ते (पृष्ठ 24)
पतझड़ के बाद वसंत में जीने के लिए पंकज जी उत्साहित हो उठते हैं, जिस तरह पतझड़ के बाद फिर से सृष्टि में नया हरापन आ जाता है, उसी तरह मनुष्य पतझड़ को भूलकर जो कुछ प्राप्त है। उसमें पुनः जीने का प्रयास कर सकता है। यहां पतझड़ दुःख और मुश्किल के रूप में उद्धृत है इसलिए उन दुखों से निकल कर आगे बढ़ने में पंकज जी का अटूट विश्वास दिखाई देता है। वसंत यहां जीवन का सुख का पर्याय बनकर आया है।इस संग्रह का शीर्षक एवं महत्वपूर्ण कविता ‘ तुम मेरे अज़ीज़ हो’ में पंकज जी लिखते हैं- “एक अहसास बनकर, तुम्हारे लिए दुआ का गुलदस्ता लेकर माथा टेकता हूं। मंदिर-मस्जिद में क्यों कि तुम मेरे अज़ीज़” (पृष्ठ 40) प्रेम का प्रार्थनाओं में बदल जाना ही प्रेम का चरमोत्कर्ष है।
इनके अतिरिक्त सुनती हो न प्रिय, साक्षात्कार, इन्सान बनना चाहता हूं, चाहत, पहली बारिश, प्रेम पंथ, तुम जब भी चाहो, अब भी, यह कैसी ख़ुशबू फैली है, ताज्जुब में हूं इत्यादि कविताएं भी प्रेमपूर्ण अभिव्यक्ति है। ‘तुम मेरे अज़ीज़ हो’ संग्रह की कविताएं प्रेम की अनुभूति से ओत-प्रोत एक संवेदनशील व्यक्तित्व की पक्षधर बनकर पंकज जी साथ खड़ी हो गई हैं। पंकज जी को नवीनतम संग्रह के लिए हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाएं।