शिक्षा का नवीन स्वरूप- वीरेन्द्र प्रधान

गुरुकुलों से आज तक आते-आते
शिक्षा में हुए नये-नये प्रयोग
हुये सुधार भी नाना प्रकार
कुछ से उन्नयन हुआ तो कुछ से बंटाधार
समाज में मूल्यों में गिरावट है
शिक्षा में भी गिरावट की आहत है
शुष्क से शुष्कतर हुए जा रहे हैं लोग
न तो मन शान्त हैं
और ना ही दिमागों में तरावट है
चाल-चलन से बर्ताव तक
सब-कुछ बनावटी लगता
शिक्षितों की यह कैसी बनावट है

आधुनिक से आधुनिक हो रहा है
शिक्षा का नवीन स्वरूप
सभी को हैं समान अवसर
क्या रंक और क्या भूप
आधुनिक होने से पहले
व्यवसाय नहीं वरन सेवा का साधन थी शिक्षा
शिक्षक भी परिवार बसाते थे
घर बनाते थे मगर
घर नहीं भरते थे
रूखा-सूखा खाकर
अपने ज्ञान का सर्वोच्च
शिष्यों को देते थे शिक्षा के रूप में
गलती करने पर दण्ड का जब प्रावधान था
हर बच्चा और पालक जागरूक और सावधान था
तब अनगढ पत्थरों से
गढी जाती थीँ सुन्दर मूरतें
कालजयी कृतियां होती थीं सम्मुख
भले ही भूलें कलाकारों की सूरतें

-वीरेन्द्र प्रधान